पूर्णावतारी
शब्द का वास्तविक-शाब्दिक अर्थ पूर्णरूप
में रहने वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप-अलम-गॉड रूप खुदा-गॉड-भगवान् का
अपने परमधाम (अमरलोक) पैराडाइज-बिहिस्त से भू-मण्डल पर अवतरित-हाजिर-नाजिर (इनकारनेट)
होकर किसी शरीर विशेष को अधिगृहीत (स्वीकार)
कर उस शरीर के माध्यम से अपने लक्ष्य कार्य रूप 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' के रक्षा कार्य रूप सम्पादन करने वाले से है । सदा-सर्वदा
अर्थात् पूरण रहने वाला परमप्रभु के अवतार से है।
'तत्त्वज्ञान' सम्पूर्ण (संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर) की
सम्पूर्णतया (शिक्षा-स्वाध्याय-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान) बात-चीत
और साक्षात् दर्शन सहित सुनिश्चित और सुस्पष्ट रूप से अद्वैत्तत्त्वबोधरूप (मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध) सहित यथार्थत: जानकारी है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
में ही एकमेव एकमात्र केवल ख़ुदा-गॉड-भगवान्
ही दे-जना-दिखा सकता है, अन्यथा कोई भी नहीं, वाला विधान है । इसी 'तत्त्वज्ञान' के दाता को पूर्णावतारी अथवा
भगवदावतारी अथवा तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु कहा जाता है । चूँकि यह 'तत्त्वज्ञान' पूरे भू-मण्डल क्या,
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ही एक समय में जब एकमात्र एक ही शरीर दे
सकता है तब धरती (भू-मण्डल) पर एक समय में ही बहुत से सद्गुरु और भगवान् कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते । यदि बहुत से धर्मोपदेशक एक साथ ही अपने को सद्गुरु
घोषित करने-करवाने लगें, तब नि:सन्देह ही उनमें से कोई एकमात्र 'एक' ही सही होगा। शेष सब दम्भी-ढोंगी- आडम्बरी-पाखण्डी-झूठे अथवा आधे-अधूरे ही तो होंगे । आप स्वयं भी सोचें-विचारें कि
ये कथन सत्य ही है या नहीं, नि:सन्देह
निर्णय बनेगा कि 'सत्य' ही है ।
जिस-किसी
भी ज्ञान में संसार और शरीर-जिस्म-बॉडी
के बीच शरीर तक की यथार्थत: जानकारी साक्षात् दर्शन वाला
शिक्षा-एजुकेशन एवं शरीर-जिस्म-बॉडी और जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं के बीच जीव-रूह-सेल्फ-स्व तक यथार्थत: (प्रायौगिक)
साक्षात् दर्शन सहित जानकारी वाला स्वाध्याय सेल्फ रियलाइजेशन तथा
जीव-रूह- सेल्फ और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट (भ्रामक शिवोऽहँ-पतनोन्मुखी सोऽहँ-ऊर्ध्वमुखी ह्ँसो-यथार्थत: ज्योतिर्मय स:) ज्योतिर्बिन्दु
रूप शिव के बीच आत्मा-नूर-सोल तक की
यथार्थत: (प्रायौगिक) साक्षात् दर्शन
सहित जानकारी वाला योग-साधना-अध्यात्म-स्पिरिचयुलाइजेशन और आत्मा-नूर-सोल-ज्योतिर्मय स: शिव और
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम्-गॉड शब्दरूप
परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान के बीच खुदा-गॉड-भगवान् सम्पूर्ण (परमाणु
से परमेश्वर तक) की यथार्थत: (प्रायौगिक)
बात-चीत एवं साक्षात् दर्शन सहित जानकारी--चारों की पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण जानकारी साक्षात् दर्शन सहित जिस ज्ञान में न हो वह 'तत्त्वज्ञान' ट्रयू-सुप्रीम
एण्ड परफेक्ट नॉलेज हो ही नहीं सकता। 'तत्त्वज्ञान' की एकमात्र पहचान सम्पूर्ण की सम्पूर्णतया सर्वप्रथम तो पृथक्-पृथक् तत्पश्चात् साथ ही साथ अद्वैत्तत्त्वबोध रूप एकत्त्वबोध रूप में
मुक्ति और अमरता के साक्षात् प्राप्त होने में है, अर्थात्
अशेष अथवा सम्पूर्ण उपलब्धि में है ।
कोई-कोई तो मूर्तियों को भगवान् मानने-मनवाने-दर्शन करवाने में लगा है तो कोई-कोई ग्रन्थों को ही
भगवान मानने-मनवाने में; पुन: कोई-कोई तो नाना प्रकारके मन्त्र जाप--'ॐ-सोऽहँ-तत्त्वर्माऽस- ऐं ह्रीं-क्लीं' आदि-आदि माला पर मन्त्र
जाप करने-कराने में लगे हैं तो कोई-कोई
प्रणव साधना से ॐ का अ.उ. म. जपवाने में; कोई-कोई श्वाँस-नि:श्वाँस के अन्तर्गत होते-रहने वाले पतनोन्मुखी विनाश
को ले जाने वाले होते रहते हुए सोऽहँ को ही खुदा-गॉड-भगवान मानने-मनवाने में लगे हैं तो कोई-कोई दिव्य ज्योति रूप सहज प्रकाश रूप परमप्रकाश रूप ज्योतिबिन्दु रूप शिव
रूप चाँदना-आसमानी रोशनी-आलिमे नूर-स्वयं प्रकाश रूप जीवन ज्योति को ही खुदा-गॉड-भगवान मानने-मनवाने में लगे हैं ।
भ्रामकता
कहा जाय कि मतिभ्रष्टता कि कोई-कोई तो एक हथेली को
नीचे करके दूसरी हथेली एकाध फुट ऊपर करके बीच के खाली स्थान (शून्य) को ही जीव भी, आत्मा भी
और परमात्मा भी मानने-मनवाने में लगे हैं। ऐसे मनमाने
तथाकथित गुरु-सद्गुरु को नाजानकार और नासमझदार नहीं कहा जाय
तो और क्या कहा जाय ? इस पर वह नाराज हो रहा तो तब तो
मतिभ्रष्ट नहीं तो आप सब बताइए कि क्या कहा जा सकता है ? सच्चाई
तो यह है कि उपर्युक्त तथाकथित मान्यता
वालों में से कोई भी न तो 'तत्त्वज्ञान' रूप भगवद् ज्ञान रूप सत्यज्ञान को जानता है और न ही कोई सद्गुरु ही है। यहाँ
तक कि वास्तव में कोई सही गुरु अथवा सही धर्मोपदेशक कहलाने का हकदार भी ये तथाकथित
महानुभावजन नहीं है । यह मेरी किसी के प्रति डाह-द्वेष-ईष्या-जलन नहीं अपितु निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से
सत्य कथन-सत्य बचन है। इसे मानें नहीं अपितु सत्यश: जाने-देखें-जाँचे-परखे तत्पश्चात् सत्य होने पर ही स्वीकार करें ।
वास्तवमें
सच्चा सद्गुरु वह है जो पूर्वोक्त पैरा वाला तत्त्वज्ञान जिसमें सम्पूर्ण की
सम्पूर्णतया साक्षात् दर्शन सहित जानकारी की बात की गयी है, वाला हो । निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से निर्णय लें कि -- क्या यह सत्य ही नहीं है कि पूरी धरती पर ही कोई भी गुरु तथा तथाकथित
सद्गुरु और तथाकथित भगवान भी ऐसा नहीं है कि--
शरीर जीव ईश्वर परमेश्वर
शरीर जीव आत्मा परमात्मा
शरीर जीव ब्रह्म परमब्रह्म
शरीर जीव शिवज्योति भगवान्
जिस्म रूह नूर अल्लाहतऽला
बॉडी सेल्फ सोल गॉड
शरीर अहं स:ज्योति परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्
इन
चारों को ही बात-चीत और साक्षात् दर्शन
सहित पृथक्-पृथक् रूप में--इन चारों को
ही यथार्थत: जानकारी की बात करता-कराता
हो ? नि:सन्देह यह सच ही है कि पूरी
धरती पर ही कोई भी ऐसा धर्मोपदेशक नहीं
जिसके पास इन उपर्युक्त चारों की साक्षात् दर्शन सहित यथार्थत: जानकारी हो।
यह बात हम स्वीकार कर रहे हैं
कि आप शिष्यों-साधकों को गुरु भक्ति के नाम पर जो लगाव-चिपकाव हो गया है उसके चलते आप सबको ये बातें थोड़ी कष्टदायक-झकझोरने वाली अवश्य होगी तथा गुरुजी-तथाकथित सद्गुरु
जी- तथाकथित भगवान जी लोगों को अपनी मिथ्यामहत्वाकांक्षा और
झूठी-मायावी चकाचौंध वाले धन-जन प्रचार-प्रसार के चलते उनकी मिथ्या अहंकार पर चोट लगने के कारण झुँझलाहट हो सकती है । मगर सच ऐसा ही हो तो
सन्त ज्ञानेश्वर कहें क्या ? क्यों नहीं मिल-जुलकर सच्चाई की जाँच-परख हो जाय कि सच्चाई क्या है
और सच्चा कौन है ? जॉच-परख के
पश्चात् नि:सन्देह
यही समाधान मिलेगा कि तत्त्वज्ञानदाता ही सद्गुरु होता है और सद्गुरु ही
पूर्णावतार अथवा भगवदावतार भी होता है ।
तत्त्वज्ञान
वह विधान है जिसमें संसार-शरीर-जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर पाँचों ही पृथक्-पृथक्
रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन को तो मिलता ही है,
अद्वैत्तत्त्वबोध रूप एकत्त्वबोध रूप मुक्ति-अमरता
का साक्षात् बोध भी तो प्राप्त होता है। साथ ही साथ शिक्षा, स्वाध्याय
एवं अध्यात्म और तत्त्वज्ञान भी उसी में समाहित दिखाई देता है । हर किसी को ही
अपनी जानकारी-तथाकथित ज्ञान की स्पष्टत: जानकारी इस आधार पर जाँच-परख कर लेनी चाहिए । सच्चाई
का पता नि:सन्देह चल जायेगा । जाँच-परख
तो होनी ही चाहिए ।
आप
सभी अपने दिल-दिमाग और जानकारी से निष्पक्ष एवं
तटस्थ भाव से ईमान और सच्चाई से पता करें तो नि:सन्देह
वर्तमान में पूरे भू-मण्डल पर ही -- एकमेव
एकमात्र ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ही तत्त्वज्ञानदाता क्या
नहीं हैं ?
नि:सन्देह ही उत्तर
मिलेगा कि नि:सन्देह और निश्चित ही एकमेव एकमात्र सन्त
ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ही वह तत्त्वज्ञानदाता हैं जिनके तत्त्वज्ञान
में परमसत्य-सर्वोच्चता और सम्पूर्णता तीनों ही समाहित हैं ।
कोई भी जाँच-परख कर सकता है । जाँच-परख
की यहाँ पर खुली छूट है, मगर प्रेम-शान्ति
और सौहार्द की स्थिति में सद्ग्रन्थीय और एक दूसरे के प्रति समर्पित-शरणागत भाव के आधार पर प्रायौगिक रूप में भी । सब भगवत् कृपा । भगवत् कृपा
हि केवलम्।