योग
का सामान्य अर्थ होता है जुड़ना। जैसे दो नदियों के मिलन को संगम कहते हैं। दो
रेलवे लाइन के मिलन बिन्दु को जंक्शन कहते हैं । दो शब्दों के मिलन को सन्धि
कहते हैं । दो अंकों के मिलन को धन या जोड़
कहते हैं। ठीक उसी प्रकार से जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं का आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-ज्योर्तिमय शिव से मिलने की क्रिया को 'योग' कहते हैं । इसी 'योग' को
अधयात्म भी कहते हैं क्योंकि अध्यात्म शब्द में 'आत्म'
तो शब्द होता और उसमें 'अधि' उपसर्ग होता है। जिसका अर्थ होता है 'आत्मा की ओर'
अर्थात् जीव का आत्मा से मिलन-जुलन की क्रिया 'योग' है तो जीव का आत्मा की ओर जाती हुई आत्मा से
मिलन-जुलन क्रिया 'अध्यात्म' होता-कहलाता है ।
योगी-अध्यात्मवेत्ता
गुरु दो प्रकार के होते हैं --1. योग सिध्द गुरु और 2 .अंशावतारी-गुरु । यह वर्तमान शीर्षक 'योग-सिध्द अथवा आध्यात्मिक गुरु' का है--अंशावतारी गुरु का नहीं । अंशावतारी वाला गुरु का शीर्षक इसके पश्चात्
जानने-देखने को मिलेगा। आइए, यहॉँ पर
योग सिध्द अध्यात्मवेत्तागुरु के सम्बन्ध में जाना-देखा जाय
।
जैसा कि पूर्वोक्त पैरा में बताया जा चुका है कि
योग-साधना उस क्रिया विशेष का नाम है
जिसके माध्यम से अथवा जिसके द्वारा जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं इन्द्रियाभिमुखी
(बहिर्मुखी) संसार से उल्टा-पीछे मुड़कर अन्तर्मुखी होता हुआ आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर- सोल-स्पिरिट-दिव्य ज्योति रूप शिव अथवा ज्योतिर्मय स:
से मिल-जुड़कर अपने-आप (अहं) को आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म (ज्योतिर्मय स:) शिवमय
बनाने का अभ्यास करते हुए बनाता भी है ।
योग का सीधा-सादा अर्थ होता है जीव-रूह-सेल्फ
का आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर- सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव से जुड़ना और जुड़े रहते हुए ईश्वरमय (आत्मामय)
होना-रहना। यहॉँ पर अथवा इस शीर्षक में योग (अध्यात्म) से मतलब होता है अपने गुरु से प्राप्त हुई
यौगिक क्रिया-साधना अथवा आध्यात्मिक क्रियाओं के नित्य प्रति
के अभ्यास से अपने आप जीव-रूह-सेल्फ (अहं) को आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल- स्पिरिट (भ्रामक शिवोऽहँ-पतनोन्मुखी
सोऽहँ-ऊर्ध्वमुखी ह्ँऽसो -ज्योतिशिव
सत्यश: (वास्तविक) ज्योतिर्मय स:)
से मिल-जुलकर आत्मामय (ईश्वरमय)
बनाने-होने-रहने से है ।
यह गुरुओं से शिष्यों के प्रति होते-रहने वाली यौगिक-साधनात्मक-आधयात्मिक क्रियात्मक पध्दति है । इस
प्रक्रिया में साधक को क्रिया अधिक और काफी लम्बे समय तक करनी पड़ती हैं, मगर उपलब्धि बहुत ही कम होती है यानी नहीं के बराबर । हाँ ! इसमें एक मान्यता अवश्य ही बनी रहती है कि हम अपने गुरुजी के आदेशानुसार
योग-क्रिया के अभ्यास में लगे हुए हैं । गुरु कृपा होगी तो
लाभ होगा ही होगा । यह मान्यता साधकों को धीरे-धीरे जिद्-हठ का शिकार बना देती है अर्थात् ये साधकगण किसी अन्य सक्षम-समर्थ गुरु के पास जाकर मिलने-पाने का प्रयास भी
नहीं करते, जो उनके लिए सही और उचित नहीं है क्योंकि हर किसी
को ही चाहिए कि आगे बढ़ने और ऊपर उठने रूपी सूत्र-सिध्दान्त
को न छोड़ें। सत्यता और श्रेष्ठत्त्व हर किसी के लिए ही सदा ही ग्राह्य होता है ।
जब और जहाँ से भी सत्यता और श्रेष्ठत्व प्राप्त हो रहा हो तो बगैर किसी हिचक-झिझक के तुरन्त ही ग्रहण-प्राप्त करने का प्रयत्न
करना चाहिए ।
किसी
भी योगी-साधक-आध्यात्मिक को इस भ्रम का
शिकार नहीं होना चाहिए कि योग-साधना अथवा अध्यात्म की क्रिया
से ही जीव परमात्मा से भी मिल सकता है और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव ही परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म भी होता है, पृथक् और भिन्न नहीं । योग-साधना अथवा अध्यात्म नि:सन्देह आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल- स्पिरिट-डिवाइन लाइट-ज्योर्तिमय शिव तक ही सीमित क्रियात्मक पध्दति है। जबकि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गॉड-भगवान और इन्हें प्राप्त करने-होने-रहने वाला विधान रूप तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान
रूप सत्यज्ञान रूप परमज्ञान रूप सम्पूर्ण विधान बिल्कुल ही और निश्चित ही परम-पृथक् और भिन्न होता है। जिसे आप इसी ग्रन्थ (पुष्पिका)
के अगले अध्याय पूर्णावतारी-तत्त्वज्ञानदाता
सद्गुरु वाले शीर्षक में जान-देख सकते हैं ।